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तेरहवां अध्याय
सोम--आनन्द व अमरता का अधिपति
ऋग्वेद, मण्डल 9, सूक्त 83
पवित्रं ते विततं ग्रह्मणस्पते प्रभुर्गात्राणि पर्येषि विश्वत: । अतप्ततनूर्न तदामो अश्नुते शृतास इद्वहन्तस्तत्समाशत ।।1 ।।
(ब्रह्मणस्पते) हे आत्माके अधिपति ! (पवित्रं ते विततम्) तुझे पवित्र करनेवाली छाननी तेरे लिये तनी हुई है; (प्रभु:) प्राणीके अंदर प्रकटहोकर तू (विश्वत: गात्राणि पर्येषि) उसके सब अंगोंमें पूर्णत: व्याप्त हो जाता है । (आम:) जो अपरिपक्व है, और (अतप्ततनू:) जिसका शरीर अग्निके तापमें पकड़कर तप्त नहीं हुआ है वह (तद् न अश्नुते) उस आनंदका आस्वादन नहीं कर पाता; (शृतास: इत्) केवल वे ही जो ज्वालाके द्वारा पककर तैयार हो गये हैं (तद् वहन्त:) उसे धारण करनेमें समर्थ होते हैं, और (तत् समाशत) उसका आस्वाद ले पाते हैं ।।1।।
तपोष्पवित्रं विततं विवस्पदे शोचन्तो अस्य तन्तवो व्यस्थिरन् । अवन्त्यस्य पयीतारमाशवो विवस्पृष्ठमधि तिष्ठन्ति चेतसा ।।2।।
(तपो पवित्रम्) तीव्र [सोम] को शुद्ध करनेकी छाननी (दिवस्पदे विततम्) द्यौके पृष्ठ पर तनी हुई है; (अस्य तन्तव:) इसके तार (शोचन्त:) चमक रहे हैं और (व्यस्थिरन्) फैले हुए स्थित हैं । (अस्य आशव:) इसके वेगपूर्ण आनंद-रस (पवीतारम्) उस आत्माको जो उसे शुद्ध करता है (अवन्ति) प्रीणित करते हैं; वे [ रस] (चेतसा) सचेतन हृदयके द्वारा (दिव: पृष्ठम् अधितिष्ठन्ति) द्यौके उच्च स्तरपर जा चढेते हैं ।।2।।
अरूरुचदुषस: पृश्निरग्रिय उक्षा बिभर्ति भुवनानि वाजयु: । मायाविनो ममिरे अस्य मायया नृचक्षस: पितरो गर्भमा दधुः ।।3।।
(अग्रिय: पृश्नि:) यही वह सर्वश्रेष्ठ चितकबरा बैल है जो (उषस: अरूरुचत्) उषाओंको चमकाता है, (उक्षा) यह पुरुष (भुवनानि बिभर्ति) संभूतिके लोकोंको धारण करता है ओर (वाजयु:) समृद्धिके लिये प्रयत्न करता है । (मायाविन: पितर:) पितरोंने जो निर्माणकारक ज्ञानसे युक्त थे (अस्य मायया) उस [सोम] की ज्ञानकी शक्तिसे (ममिरे) उसकी प्रतिमाका ४४१ निर्माण किया; ( नृचक्षस:) दिव्य दर्शनमें प्रबल उन्होंने (गर्भम् आदधु :) उसे उत्पन्न होनेवाले शिशुकी न्याई अंदर धारण किया ।।3।।
गन्धर्व इत्था पदमस्य रक्षति पाति देवानां जनिमान्यद्भुत: । गृम्णाति रिपुं निधया निषापति: सुकृत्तमा मधुनो भक्षमाशत ।।4।।
( गन्धर्व : इत्था) गंधर्वके रूपमें आकर वह ( अस्य पदं रक्षति) उसके सच्चे पदकी रक्षा करता है; (अद्भुत:) परमोच्च तथा अद्भुत होकर वह ( देवानां जनिमानि पाति) देवोंके जन्मको रक्षित करता है, ( निधापति:) आंतरिक निधानका अधिपति वह (निधया) आंतरिक निधानके द्वारा ( रिपुं गृम्णाति) शनुको पकड़ता है । ( सुकृत्तमा :) जो कर्मोंमें पूर्णत : सिद्ध हो गये हैं वे (मधुन: भक्षम्) उसके मधुके भोगका ( आशत) स्वाद लेते हैं ।।4।।
हविर्हविष्मो महि सद्य दैव्यं नभो वसानः पीर यास्यध्वरम् । राजा पवित्ररथो वाजमारुह: सहस्रभृष्टिर्जयसि श्रवो बृहत् ।।5।।
( हविष्म:) हे भोजनको अपने अंदर धारण रखनेवाले ! [सोम!] ( हवि:) तु वह दिव्य भोजन है, ( महि) तू विशाल है, (दैव्यं सद्म) दिव्य घर हैं; ( नभ: वसान:) आकाशको चोगेकी तरह धारण किये हुए तू ( अध्वरं परियासि) यज्ञकी यात्राको चारों ओरसे परिवेष्टित करता है । ( पवित्ररथ: राजा) निज रथ-रूप परिशुद्ध करनेवाली छाननीसे युक्त, राजा तू ( वाजम् आरुह: ) विपुल समृद्धिके प्रति ऊपर आरोहण करता है; ( सहस्रभृष्टि:) अपनी सहस्र जाज्वल्यमान दीप्तियोंसे युक्त तू ( बृहत् श्रव : जयसि) विशाल ज्ञानको जीत लेता है ।।5।।
भाष्य
वैदिक मंत्रोंका यह एक साफ दिखायी देनेवाला, एक महत्त्वपूर्ण स्वरूप है कि यद्यपि वैदिक संप्रदाय उस अर्थमें जो 'एकदेवतावादी' शब्दका आज अर्थ लिया जाता है, एकदेवतावादी नहीं था, तो भी वेद-मंत्रोंमें निरंतर कभी तो बिल्कुल खुले और सीधे तौरपर और कभी एक जटिल तथा कठिन ढंगसे, यह बात सदा एक आघारभूत विचारके रूपमें प्रस्तुत की हुई मिलती है कि अनेक देव जिनका मंत्रोंमें आवाहन किया गया है असलमें एक ही देव हैं,--देव एक ही है उसके नाम अनेक हैं, अनेक रूपोंमें वह प्रकट हुआ है, अनेक दिव्य व्यक्तित्वोंके छद्मवेशमें वह मनुष्यके पास पहुँचा है । यद्यपि भारतीय मनके सामने यह दृष्टिकोण कुछ भी कठिनाई उपस्थित नहीं करता, पर पाश्चात्य विद्वान् वेदके इस घार्मिक दृष्टिकोणसे चकरा गये हैं और उन्होंने इसकी व्याख्या करनेके लिये वैदिक हीनोथीज्म (Vedic Heno- ४४२ theism) के एक सिद्धांतका आविष्कार कर लिया है । उनका विचार है कि वस्तुत: वैदिक ऋषि बहुदेवतावादी ही थे, पर वे प्रत्येक देवको ही जब कि वे उसकी पूजा कर रहे होते थे सबसे अधिक मुख्यता दे देते थे और यहाँ तक कि एक प्रकारसे उसे ही एकमात्र देव समझ लेते थे । 'हीनोथीज्य'का यह आविष्कार विदेशीय मनोवृत्तिका इस बातके लिये प्रयत्न है कि वह भारतीयोंके इस विचारको किसी तरह समझ सके और इसकी कुछ व्याख्या कर सके कि दिव्य सत्ता वस्तुत: एक ही है जो अपने आपको अनेक नामों और रूपोंमें व्यक्त करती है तथा उस दिव्य सत्ताका हर एक ही नाम और रूप उसके पूजकके लिये एक और परम देव होता है । देवविषयक यह विचार जो पौराणिक संप्रदायोंका आधारभूत विचार है, हमारे वैदिक पूर्वजोंमें पहले ही से प्रचलित था ।
वेदमें पहलेसे ही बीजरूपमें 'ब्रह्म'-संबंधी वैदांतिक विचार मौजूद है । वेद एक अज्ञेय, एक कालातीत सत्ताको, उस सर्वोपरि देवको स्वीकार करता है जो न आज है न कल, जो देवोंकी गतिसे गतिमान् होता है पर स्वयं, मन जब उसे पकड़नेका यत्न करता है तो उसके सामनेसे अंतर्धान हो जाता है (ऋग्वेद 1. 170. 1 )1 । इसे नपुंसक लिंगमें 'तत्'के द्वारा वर्णित किया गया है और प्रायः अमृतसे, सर्वोच्च त्रिगुणित तत्त्वसे, बृहत् आनंदसे, जिनकी मनुष्य अभीप्सा करता है, इसकी तद्रूपता दिखायी गयी है । ब्रह्म गतिरहित (अक्षर) है, सब देवोंका एक केंद्र है । ''गतिरहित ब्रह्म जो महान् है, गौ (अदिति)के पदके अंदर पैदा हुआ है,... वह महान् है, देवोंका बल है, एक है'' (3.55.1)2 । यह ब्रह्म वह एक सत्ता है जिसे द्रष्टा ऋषि भिन्न-भिन्न नाम देते हैं, इन्द्र, मातरिश्वा- अग्नि (1.164.46 )3।
यह ब्रह्म, यह 'एक सत्', जिसे इस प्रकार भाववाचक (अपुरुषवाचक) रूपमें नपुंसक लिंगमें वर्णित किया गया है, इस प्रकार भी निरूपित किया गया है कि यह देव है, परम देवता है, वस्तुओंका पिता है जो यहाँ मानवीय आत्मा होकर पुत्रके रूपमें प्रकट होता है । वह आनंदमय है, जिसे पानेको देवोंकी गति आरोहणमें अग्रसर होती है, वह एक साथ पुरुष और स्त्री, वृषन्, धेनु, दोनोंके रूपमें व्यक्त हुआ है । देवोंमेंसे प्रत्येक ही उस परम ______________ 1. न नूनमस्ति नो श्व: कस्तद् वेद यदद्भुतम् । अन्यस्य चित्तमभि सञ्चरेष्यमुताधीतं वि नश्यति ।। 2.... महद् विजज्ञे अक्षरं पदे गो: ।... महद् देवानामसुरत्वमेकम् । 3. एकं सद् विप्रा बहुधा वदन्ति अग्नि यमं मातरिश्वानमाहु: । ४४३ देवकी एक अभिव्यक्ति है, एक स्वरूप है, एक व्यक्तित्व है । वह अपने किसी भी नाम और रूप द्वारा, इन्द्र द्वारा, अग्नि द्वारा सोम द्वारा साक्षात्कृत किया जा सकता है, क्योंकि उनमेंसे प्रत्येक अपनेमें एक पूर्ण देव है और हमें दीखनेवाले केवल अपने उपरिपार्श्व या रूपमें ही वह औरोंसे भिन्न लगता है, वैसे वह अपने अंदर सब देवोंको धारण किये होता है ।
इस प्रकार अग्निकी एक सर्वोच्च तथा विराट् देवके रूपमें स्तुतिकी गयी है, ''तू, हे अग्नि ! जब पैदा होता हैं तब वरुण होता है, जब पूर्णत: प्रदीप्त हो जाता है तब तू मित्र होता है, हे शक्तिके पुत्र ! तेरे अंदर सब देव विद्यमान हैं, हवि देनेवाले मर्त्यके लिये तू इन्द्र होता है1 । तू अर्यमा होता है जब कि तू कन्याओंके गुण नामको धारण करता है । जब तू गृहपति और गृहपत्नी (दम्पति) को एक मनवाला करता है तब वे तुझे किरणोंसे (गौओंसे, गोभि:) चमका देते हैं, सुधृत मित्रकी तरह2 । तेरी महिमाके लिये हे रुद्र ! मरुत् उसे अपने पूरे जोरसे चमकाते हैं जो तेरा चारु और चित्र-विचित्र जन्म है । जो विष्णुका परम पद है उसके द्वारा तू किरणोंके (गौओंके, गोनाम्) गुह्य नामका रक्षण करता है3 । तेरी महिमा के द्वारा हे देव ! देवता सत्यदर्शन पा लेते हैं और (बृहत् अभिव्यक्तिकी) संपूर्ण बहुताको अपने अंदर धारण करके वे अमृतका आस्वादन करते हैं । मनुष्य अपने अंदर यज्ञके होताके रूपमें अग्निको प्रतिष्ठित करते हैं, जब कि ( अमृतकी) इच्छा करते हुए वे सत्ताकी आत्म- अभिव्यक्तिको (देवोंके लिये) अर्पित कर देते हैं4 । तू ज्ञानी होकर पिताका उद्धार कर, जो हमारे अंदर तेरे पुत्रके रूपमें धारित है, (पाप तथा अंधकार को) दूर भगा दे, हे शक्ति के पुत्र!''5 (5.3.9) । इन्द्रकी भी इसी प्रकारकी स्तुति वामदेव ऋषि द्वाराकी गयी है, और अन्य कई सूक्तोंकी ____________ 1. त्वमग्ने वरुणो जायसे यत्त्वं मित्रो भवसि यत् समिद्ध: । स्वे विश्वे सहसस्पुत्र देवास्त्वमिन्द्वो दारुषे मर्त्याय ।। ऋग्० 5.3.1 2.त्वमर्यमा भवसि यत्कनीनां नाम स्वधावन् गुह्यं बिभर्षि । अञ्जन्ति मित्रं सुधितं न गोभि र्यद्दम्पती समनसा कृष्णोषि ।। ऋग्० 5.3.2 3.तव श्रिये मरुतो मर्जयन्त रूद्र यत्ते जनिम चारु चित्रम् । पद यद्विष्णोरूपमं निधायि तेन पासि गुह्यं नाम गोनाम् ।। ऋग्० 5.3.3 4.तव श्रिया सुदृशो देव देवा: पुरू वधाना अमृतं सपन्त । होतारमग्निं मनुषो निषेदुर्दशस्यन्त उशिज: शंसमायो: ।। ॠग्० 5.3.4 5. अव स्पृषि पितरं योधि विद्वान् पुत्रो यस्ते सहस: सून ऊहे । ॠग० 5.3.9 ४४४ सोम-आनन्द व अमरता का अधिपति
भांति इस 9म मंडलके 83 वें सूक्तमें, सोम भी अपने विशेष व्यापारोंसे सर्वोच्च देवके रूपमें प्रकट होता है ।
सोम आनंदके रसका, अमृत-रसका अधिपति है । अग्नि ही की तरह वह पौधोंमें, पार्थिव उपचयोमें और जलोंमें पाया जाता है । सोम-रस जो बाह्य यज्ञमें प्रयुक्त किया जाता है इसी आनंद-रसका प्रतीक है । यह पीसनेके पत्थर ( अद्रि, ग्रावा) के द्वारा निचोड़ा जाता है । सोम पीसनेके इस पत्थरका विद्युद्बवज्रके साथ, इन्द्रकी वज्रभूत उस विद्युत्-शक्तिके साथ जिसे 'अद्रि' ही कहा जाता है, घनिष्ठ प्रतीकात्मक संबंध है । वेदमंत्र इसी पत्थरकी प्रकाशमय गर्जनाओंका वर्णन कर रहे होते हैं जब कि वे इन्द्रके वज्रके प्रकाश और शब्दका वर्णन करते हैं । एक बार सत्ताके आनंदके रूपमें सोमको निचोड़कर निकाल लिये जानेपर फिर इसे छाननी (पवित्र) के द्वारा परिशुद्ध करना होता है और छाननीमेंसे छनकर वह अपने पवित्र रूपमें रसके प्याले (चमू) में आता है जिसमें रखा जाकर वह यज्ञमें लाया जाता है, या वह इन्द्रको पान करानेके लिये 'कलशों'में भर लिया जाता है । अथवा, कहीं कहीं इस प्याले या कलशका प्रतीक उपेक्षित कर दिया गया है, और सोमका सीधे इस तरह वर्णन किया गया है, कि वह आनंदकी धाराके रूपमें प्रवाहित होकर देवोंके घरमें, अमृतके सदनमें, आता है । ये वर्णन प्रतीकरूप हैं यह बात नवम मंडलके अधिकतर सूक्तोंमें, जो सारे ही सोमदेवतापरक हैं, बहुत ही स्पष्ट हो जाती है । उदाहरणार्थ, यहाँ सोमरसका कलश मनुष्यके भौतिक शरीरका प्रतीक है और इस छाननीके लिये जिससे छानकर इसे परिशुद्ध किया जाता है यह कहा गया है कि वह द्यौके स्थान मे, दिवस्पदे, तनी हुई है ।
इस सूक्तका प्रारंभ एक आलंकारिक वर्णनसे होता है जिसमें सोमरसको छानकर शुद्ध करने तथा इसे कलशमें भरनेके भौतिक कार्योंके साथ पूरा-पूरा रूपक बाँधा गया है । द्यौके पृष्ठपर तनी हुई छाननी या परिशुद्ध करनेका उपकरण ज्ञान (चेतस्) से प्रकाशित हुआ मन प्रतीत होता है; मनुष्यका भौतिक शरीर कलश है । पवित्रं ते विततं ब्रह्यणस्पते, छाननी तेरे लिये फैली हुई है, हे आत्माके अधिपति; प्रभुर्गात्राणि पर्येषि विश्वत:, अभिव्यक्त होकर तू सर्वत्र अंगोंमें व्याप्त हो जाता है या अंगोंके चारों तरफ गति करने लगता है । सोमको यहाँ 'ब्रह्मणस्पति' नामसे संबोधित किया गया है, जो नाम कहीं-कहीं अन्य देवोंके लिये भी व्यवहृत हुआ है पर प्राय: जो बृहस्पति, रचनाकारक शब्दके अधिपतिके लिये नियत है । 'ब्रह्म' वेदमें वह आत्मा या आत्मिक चेतना है जो वस्तुओंके गुह्य हृदयके अंदरसे ४४५ आविर्भूत होती है, किंतु अधिकतर यह वह अन्तःप्रेरित, रचनाकारक, गुह्य सत्यसे परिपूर्ण विचार है जो उस चेतनाके अंदरसे उद्भूत होता है और मनका विचार, मन्म, बन जाता है । तो भी, यहाँ इसका अभिप्राय स्वतः आत्मा ही प्रतीत होता है । आनंदका अधिपति सोम वह सच्चा रचयिता है जो आत्माको धारण करता है और उस आत्मामेंसे एक दिव्य रचनाको उत्पन्न कर देता है । उसके लिये मन और हृदय प्रकाशित होकर छाननी बना दिये गये हैं; इनमें विद्यमान चेतना सर्वविध संकीर्णता और द्वैधसे मुक्त होकर व्यापक रूपमें विस्तृत कर दी गयी है ताकि वह इंद्रिय-जीवन तथा मनोमय जीवनका पूर्ण प्रवाह प्राप्त कर सके और इसे वास्तविक सत्ताके विशुद्ध आनंदमें, दिव्य आनंदमें, अमर आनंदमें परिणत कर सके ।
इस प्रकार गृहीत होकर, साफ होकर, छाना जाकर जीवनका सोमरस आनंदमें परिणत होकर मानव-शरीरके समस्त अंगोंके अंदर झरता हुआ आता है, जैसे कि किसी कलशमें, और उन सबके अंदरसे गुजरता हुआ पूर्णतः उनके एक-एक भागमें प्रवाहित हो जाता है । जिस प्रकार किसी मनुष्यका शरीर तीव्र मदिराके संस्पर्श तथा मदसे परिपूर्ण हो जाता है उसी प्रकार सारा भौतिक शरीर इस दिव्य आनंदके संस्पर्श तथा मदसे परिपूरित हो जाता है । 'प्रभु' और 'विभु' शब्द वेद मे बादके ' 'स्वामी' ' अर्थमें प्रयुक्त नहीं हुए हैं, किंतु एक नियत आध्यात्मिक अर्थमें आये हैं, जैसे कि बादकी भाषामें प्रचेतस् और विचेतस् या प्रज्ञान और विज्ञान । ''विभु''का अर्थ है इस प्रकारका होना कि व्यापक रूपमें अस्तित्वमें आना, ''प्रभु''का अर्थ है ऐसा होना कि चेतनाके सम्मुख भागमें एक विशेष बिन्दुपर किसी विशेष वस्तु या अनुभूतिके रूपमें अस्तित्वमें आना । सोमरस मदिराकी तरहसे छाननीमेंसे बूंद-बूंद करके नि:सृत होता है और उसके बाद कलशमें व्याप्त हो जाता है; यह किसी विशेष बिंदुपर केंद्रित हुई चेतनाके अंदर उद्भूत होता हैं, प्रभु, या ऐसे आता है जैसे कि कोई विशेष अनुभूति, और फिर आनंद बनकर समस्त सत्ताको व्याप्त कर लेता है, विभु ।
किंतु प्रत्येक मानव-शरीर ऐसा नहीं है कि बह उस दिव्य आनंदके प्रबल और प्राय:कर प्रचंड मदको ग्रहण कर सके, सम्हाल सके, और उसका उपभोग कर सके । अतप्ततनूर्न तदामो अश्नुते, जो व्यक्ति कच्चा है और जिसका शरीर तप्त नहीं हुआ है वह उसका आस्वादन नहीं कर सकता या उसका रस नहीं ले पाता; शृतास इद् वहन्त: तत् समाशत, केवल वे ही जो अग्निमें पक चुके हैं उसे मारण कर पाते हैं और पूर्णत: उसका ४४६ स्वाद ले सकते हैं । शरीरके अंदर उंडेला हुआ दिव्य जीवनका रस एक तीव्र, उमड़कर प्रवाहित होनेवाला और प्रचंड आनंद है; उस शरीरमे यह नहीं थामा जा सकता जो जीवनकी बड़ीसे बड़ी अग्नि-ज्वालाओंमें तपी गयी कठोर तपस्याओं द्वारा तथा कष्टसहन और अनुभव द्वारा इसके लिये तैयार नहीं हो चुका है । मिट्टीका कच्चा घड़ा जो आबेकी आंचसे पककर दृढ़ नहीं हो गया है सोमरसको नहीं थाम सकता; बह टूट जाता है और बहुमूल्य रसको बखेर देता है । इसी प्रकार मनुष्यका भौतिक शरीर जो आनंदका तीव्र रस पीना चाहता है, कष्टसहनके द्वारा तथा जीवनकी सब उत्पीड़नकारी अग्नियोंपर विजयके द्वारा, सोमकी रहस्यमय तथा आग्नेय तीव्रताके लिये तैयार हो चुकना चाहिये; नहीं तो उसकी सचेतन सत्ता इसे थामनेमे सभर्थ नहीं हो सकेगी; वह उसे चखते ही या चखनेसे भी पहले बखेर देगी और खो देगी या वह इसके स्पर्शसे मानसिक और भौतिक तौरपर भग्न हो जायगी, टूट जायगी । (देखो, मंत्र पहला)
इस तीव्र तथा आग्नेय रसको शुद्ध करनेकी आवश्यकता है और इसे शुद्ध करनेके लिए छाननी द्यौके पृष्ठपर विस्तृत रूपमें फैलायी जा चुकी है ताकि यह उसमें आकर पड़े, तपोष्पवित्रं विततें दिवस्पदे; इसके तन्तु या रेशे सब पवित्र प्रकाशके बने हैं और इस तरह लटके हुए हैं जैसे कि किरणें, शोचन्तो अस्य तन्तवो व्यस्थिरन् । इन रेशोंके बीचमेंसे रसकी धाराओंको प्रवाहित होकर निकलना है । यह रूपक स्पष्ट ही विशुद्धीकृत मानसिक तथा आवेशात्मक चेतना, सचेतन हृदय, चेतस्की ओर संकेत करता है, विचार और आवेश ही जिसके तन्तु या रेशे हैं । द्यौ है विशुद्ध मानसिक लोक जो प्राण तथा शरीरकी प्रतिक्रियाओंका विषय नहीं होता । द्यौ अर्थात् विशुद्ध मानसिक सत्ता प्राणमय तथा भौतिक चेतनासे भिन्न है । उसके पृष्ठपर विचार और आवेश सच्चे बोध तथा सुखमय भौतिक स्पन्दनकी पवित्र किरणें बन जाते हैं और उन पीड़ित तथा अंधकाराच्छादित मानसिक, आवेशात्मक और ऐन्द्रियिक प्रतिक्रियाओंको छोड़ देते हैं जो अब तक हमारे अंदर होती थीं । वे अब ऐसी संकुचित और कंपायमान वस्तुएँ रहनेके बजाय जो दुःखके तथा अनुभवके धक्कोंके बाहुल्यसे अपना बचाव करनेमें लगी रहती हैं, स्वतंत्र, दृढ़ और चमकदार बनकर खड़े होते हैं और आनंदपूर्वक अपनेको विस्तृत कर लेते हैं ताकि विश्वव्यापी सत्ताके समस्त संभाव्य संस्पर्शोंको वे ग्रहण कर सकें तथा उन्हें दिव्य आनंदमें परिणत कर सकें । इसलिये सोमको छाननेकी छाननीको सोमके ग्रहण करनेके लिये द्यौके पृष्ठपर, दिवस्पदे, फैली हुई बताया गया है । ४४७ इस प्रकार गृहीत तथा विशुद्धीकृत होकर ये तीव्र और प्रचण्ङ रस, ये सोम-रसकी वेगवती तथा मद ला देनेवाली शक्तियाँ, अब मनको विक्षुब्ध या शरीरक आहत नहीं करतीं, अब बिखरती या व्यर्थ नहीं जातीं, किंतु अपने परिशुद्ध करनेवालेके मन तथा शरीरको प्रीणित करती और बढ़ाने लगती हैं, अवन्त्यस्य पवीतारमाशव: । इस प्रकार उसके मानसिक, आवेशात्मक, संवेदनात्मक और भौतिक सत्ताके समग्र आनंदमें उसे बढ़ाते हुए वे रस उसे लेकर विशुद्धीकृत तथा आनंदपूर्ण हृदयमेंसे होकर द्यौके सर्वोच्च पृष्ठ या स्तरकी ओर उठ जाते हैं, अर्थात् स्व:के उस प्रकाशमान लोककी ओर उठ जाते हैं जहाँ मन जो अन्तर्ज्ञान (Intuition), अन्त:प्रेरणा (Inspiration), स्वत:प्रकाश ज्ञान ( Revelation) को ग्रहण करनेमें समर्थ हो चुका है, सत्य ( ऋतम्) की उज्जवलतामें स्नान कर लेता है, विशालता ( बृहत्) की असीमतामें उन्मुक्त हो जाता है । दिवस्पृष्ठमधि तिष्ठन्ति चेतसा । ( देखो, मंत्र दूसरा)
यहाँ तक ऋषिने सोमका वर्णन उसकी भावरूप ( अपुरुषरूप) अभिव्यक्तिके तौरपर, मनुष्यकी सचेतन अनुभूतिमें आनेवाले आनंद या दिव्य सत्ताके सुखके तौरपर किया है । अब वह, जैसी कि वैदिक ऋषियोंकी प्रवृत्ति है, दिव्य अभिव्यक्तिसे दिव्य पुरुषकी तरफ मुड़ता है और तुरंत सोम परम पुरुष, उच्च तथा विश्वव्यापी देव, के रूपमें प्रकट होता है । अरूश्चद् उषस : पृश्निरग्रिय:, परम चितकबरा होकर वह उषाओंको चमकाता है; उक्षा बिभर्त्ति भुवनानि वाजयु :; वह बैल, लोकोंको धारण करता है, समृद्धिको चाहता हुआ । पृश्नि ( चितकबरा) शब्द दोनोंके लिये प्रयुक्त होता है, बैल अर्थात् परम पुरुष और गौ अर्थात् स्त्रीभूत शक्तिके लिये । रंगवाची सभी शब्दों, श्वेत, शुक्र, हरि, हरित्, कृष्ण, हिरण्यकी तरह वेदमें यह ( पृश्नि) भी प्रतीकात्मक है; रंग, वर्ण, रहस्यवादियोंकी भाषामें सदा गुण, स्वभाव आदिको बताता है । चितकबरा बैल वह देव है जो अपनी अभिव्यक्तिमें विविधतावाला है, अनेकवर्ण है । सोम ही वह प्रथम सर्वश्रेष्ठ चितकबरा बैल, संभूतिके लोकोंका उत्पादक है, क्योंकि उस आनदमेंसे, सर्वानदपूर्णमेंसे ही वे सब निकलते हैं; आनंद ही सत्ताओंकी विविधताका पिता है । वह बैल है, उक्षा है, 'उक्षन्' शब्दका अर्थ अपने पर्यायवाची 'वृषन्'की तरह वर्षक, उत्यादक, वीर्यसेचक, प्रचुरताका पिता, बैल, पुरुष होता है; यह वह है जो चेतनाकी शक्तिको, प्रकृतिको, गौको उपजाऊ बना देता है और अपनी प्रचुरताकी धाराके. द्वार। लोकोंको पैदा करता तथा धारण करता है । वह उषाओंको,--प्रकाशकी उषाओंको, सूर्यकी ४४८ चमकीली ''गौओं''की माताओंको,-चमका देता हैं; और वह समृद्धिकी अर्थात् सत्ता, शक्ति और चेतनाकी परिपूर्णताकी, देवत्वके बाहुल्यकी इच्छा करता है, जो दिव्य आनंदकी अवस्था है । दूसरे शब्दोंमें, आनंदका अधिपति (सोम) ही हमें सत्यकी दीप्तियाँ और वृहत्की विपुल समृद्धियाँ प्रदान करता है जिनके द्वारा हम अमरत्व प्राप्त करते हैं । (देखो, तीसरे मंत्रका पूर्वार्द्ध)
जिन पितरोंने सत्यको खोज लिया था उन्होंने सोमके रचनाशील ज्ञानको, उसकी मायाको ग्रहण कर लिया और परम देवकी उस आदर्शभूता ( ideal ) तथा कल्पिका ( ideative) चेतनाके द्वारा उन्होंने मनुष्यके अंदर उस (सोम) की प्रतिमाको रच दिया, उन्होंने उसे जातिके अंदर एक अनुत्पन्न गर्भमें विद्यमान शिशुके रूपमें, मनुष्यमें वर्तमान देवत्वके बीजके रूपमें, उस जन्मके रूपमें प्रतिष्ठित कर दिया जो मानव चेतनाके कोषके अंदरसे होना है । माया-विनो ममिरे अस्य मायया, नृचक्षस: पितरो गर्भमादधुः । ये पितर हैं दे प्राचीन ऋषि जिन्होंने वैदिक रहस्यवादियोंके मार्गको खोजकर पता लगाया था, और जो, ऐसा माना जाता है कि, आध्यात्मिक रूपमें अब भी विद्यमान हैं और जातिकी भवितव्यताके अधिष्ठाता हैं और देवोंकी तरह मनुष्यके अंदर उसके अमरत्वकी प्राप्तिके लिये कार्य करते हैं । ये वे ऋषि हैं जिन्होंने प्रबल दिव्य दर्शन प्राप्त किया था, नृचक्षस:, उस सत्य-दर्शन (Truthvision) को प्राप्त किया था जिसके द्वारा वे पणियोंसे लुका दी गयी गौओंको ढूंढ़ लेनेमें तथा रोदसी की, मानसिक और भौतिक चेतनाकी, सीमाओंको पार करके पराचेतनको, बृहत् सत्य और आनंदको, पा लेनेमें समर्थ हो सके थे । (देखो, ऋग्वेद 1 .36.7; 4.1.13-18; 4.2.15-18 आदि) (मंत्र तीसरा समाप्त) ।
सोम गंधर्व है, आनंदकी सेनाओंका अधिपति है, और वह देवके सच्चे पदकी, आनंदके पृष्ठ या स्तरकी, रक्षा करता है; गन्धर्व इत्था पदमस्य रक्षति । वह सर्वोच्च है, अन्य सब सत्ताओंसे बाहर तथा उनके ऊपर स्थित है, उनसे भिन्न और अद्भुत है, और इस प्रकार सर्वोच्च तथा सर्वातीत होता हुआ, लोकोंके अंदर विद्यमान किंतु उन्हें अतिक्रमण करता हुआ वह उन लोकोंके अंदर देवोंके जन्मोंकी रक्षा करता है, पाति देवानां जनिमानि अद्भुत: । ''देवोंके जन्म'' वेदमें एक सामान्य मुहावरा है जिससे विश्वके अंदर दिव्य तत्त्वोंकी अभिव्यक्ति होना और विशेषकर मनुष्यके अंदर विविध रूपोंमें देवत्वका निर्माण होना अभिप्रेत है । गत ऋचामें ऋषिने इस देवका इस रूपमें वर्णन किया था कि यह दिव्य शिशु है जो जन्म पानेके लिये ४४९ तैयार हो रहा है,-विश्वमें, मानवीय चेतनाके अंदर आवृत हुआ पड़ा है । यहाँ वह उसके विषयमें यह कहता है कि वह सर्वातीत है और वह मनुष्य के अंदर निर्मित आनंदके लोककी तथा दिव्य ज्ञानके द्वारा उसके अंदर पैदा हुए देवत्वके रूपोंकी शत्रुओं, विभाजनकी शक्तियों, असुखकी शक्तियों (द्विष:, अराती:) के आक्रमणोंसे रक्षा करता है, साथ ही अपने अंधकारपूर्ण तथा मिथ्या रचना करनेवाले ज्ञान, अविद्या, भ्रमके रूपों सहित अदिव्य सेनाओं (अदेवी: माया:) के विरुद्ध भी उनकी रक्षा करता है ।
क्योंकि यह इन आक्रामक शत्रुओंको आतंरिक चेतनाके जालमें पकड़ लेता है; वह उस विश्व-सत्य तथा विश्वनुभूतिके निधान (विन्यास, संनिवेश) का अधिपति है जो इंद्रियों तथा बाह्य मनसे रचित निधान (विन्यास) की अपेक्षा अघिक गंभीर और अधिक सत्य है । इसी आंतरिक निधानके द्वारा वह मिथ्यात्व, अंधकार तथा विभाजनकी शक्तियोंको पकड़ता है और उन्हें सत्य, प्रकाश तथा एकताके नियम के अधीन कर देता है; गृभ्णाति रिपुं निधया निधापति: । इसलिये जो मनुष्य इस आंतरिक प्रकृतिपर शासन करनेवाले आनंदके अधिपतिसे रक्षित होते हैं वे अपने विचारों और क्रियाओंको आंतरिक सत्य तथा प्रकाशके अनुकूल कर लेनेमें समर्थ हो जाते हैं और फिर बाह्य कुटिलताकी शक्तियोंके द्वारा स्खलन को प्राप्त नहीं कराये जाते; वे सीधे चलते हैं, वे अपने कार्योमें बिल्कुल पूर्ण हो जाते हैं और अंदर होनेवाली क्रिया तथा बाह्य कर्मके इस सत्य द्वारा सत्ताके समग्र माधुर्यको, मधुको, उस आनंदको जो आत्माका भोजन है, आस्वादन करनेके योग्य बन जाते हैं । सुकृत्तमा मधुनो भक्षमाशत । (देखो, मंत्र चौथा)
यहाँ सोम इस रूपमें प्रकट होता है कि वह हव्य, दिव्य भोजन, आनंद तथा अमरताका रस, 'हवि:', हैं और वह, उस दिव्य हवि का अधिपति, देव ('हविष्म:') है, ऊपर वह विशाल और दिव्य घर है, वह पराचेतन आनंद और सत्य बृहत्, है जिसमेंसे सोम-रस अवरोहण करके हमारे समीप पहुँचता है । आनंदके रसके रूपमें वह इस यज्ञकी महान् यात्राके, जो भौतिकतासे पराचेतनकी ओर मनुष्यकी प्रगीत है, चारों ओर प्रवाहित हो पड़ता है तथा उसके अंदर प्रविष्ट हो जाता है । वह धुंधले आकाश, नभस्, अर्थात् मनोमय तत्त्वको अपने चोगे और आवरणके तौरपर धारण किये हुए इसके अंदर प्रविष्ट होता है और इसे चारों ओरसे घेर लेता है । हविर्हविष्मो महि सद्म दैव्यं, नभो वसान: परि यासि अध्वरम् । दिव्य आनंद हमारे पास मानसिक अनुभूतिके रूपोंके चमकीले-धुंधले आवरणको धारण किये हुए आता है । ४५० उस यात्रा या यज्ञिय आरोहणमें यह सर्वानंदपूर्ण देव हमारी सब क्रियाओंका राजा बन जाता है, हमारी दिव्यीकृत प्रकृतिका और उसकी शक्तियोंका स्वामी हो जाता हैं और प्रकाशाविष्ट सचेतन हृदयको रथ बनाकर असीम तथा अमृत अवस्थाकी विपुल समृद्धिके अंदर आरोहण कर जाता है । सूर्य या अग्निकी तरह सहस्र जाज्वल्यमान शक्तियोंसे परिवृत होता हुआ वह अन्तःप्रेरित सत्यके, पराचेतन ज्ञानके, विशाल प्रदेशोंको जीत लेता हैं; राजा पवित्ररथो वाजमारुहः, सहस्रभृष्टिर्जयसि श्रवो बृहत् । यह रूपक उस विजेता राजाका है जो शक्ति और तेजमें सूर्यसदृश होता हुआ किसी विशाल राज्यपर विजय पा लेता है । उस विशाल सत्य-चेतनामें, 'श्रव:'मे जिसपर अमृत अवस्था प्रतिष्ठित है, वह मनुष्यके लिये अमरताको ही जीत लेता है । मनुष्यके अंदर छिपा हुआ वह देव अंधकार और संध्या से निकलकर उषाके प्रकाशोंमेंसे होता हुआ सौर समृद्धियोंमें आरोहण करके अपने वास्तविक धामको ही, इत्था पदम् अस्य, जीत लेता है । (देखो, मंत्र पांचवां)
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इस सूक्तके साथ मैं ऋग्वेदीय 'चुने हुए सूक्तों'की यह लेखमाला समाप्त करता हूँ । मेरा उद्देश्य यह रहा है कि मैं ठीक-ठीक उदाहरणोंसे वेदके रहस्यका स्पष्टीकरण करते हुए जितना भी संभव हो उतने संक्षेपमें वैदिक देवों (देवताओं) के वास्तविक व्यापारोंको, उन प्रतीकोंके आशयको जिनमें उनका विषय व्यक्त किया गया है, और यज्ञके स्वरूप तथा यज्ञके लक्ष्यको दिखाऊँ । मैंने जान-बूझकर कुछ छोटे-छोटे और सरल-सरल सूक्त ही चुने हैं और वे उपेक्षित कर दिये हैं जो बहुत ही चित्ताकर्षक गहराई, विचार और रूपककी सूक्ष्मता व जटिलता रखते हैं,--इसी तरह उन्हें भी छोड़ दिया है जिनमें आध्यात्मिक आशय स्पष्ट तौरसे ओर पूर्ण रूपसे उनके उपरिपृष्ठपर ही रखा हुआ है तथा उन्हें जो अपनी अति ही अद्भुतता तथा गहनताके द्वारा रहस्यवादी और पवित्र कविताओंके अपने वास्तविक स्वरूपको प्रकट करते हैं । आशा है कि ये उदाहरण पाठकको, जो खुले मनसे इनका अध्ययन करेगा, हमारी इस प्राचीनतम और महत्तम वैदिक कविताका वास्तविक आशय दर्शानेके लिये पर्याप्त होंगे । अन्य अनुवादोंके द्वारा, जो अपेक्षया अधिक सामान्य ढंगके होंगे, यह दिखाया जायगा कि ये विचार केवल कुछ ही ऋषियोंके उच्चतम विचार नहीं हैं, किंतु ये विचार और शिक्षाएँ ऋग्वेदमें व्यापक रूपसे पायी जाती हैं । ४५१
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